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लाडनूं का एक ऐतिहासिक स्थल

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वि० सं० 1129 की बात है। उस समय बीकानेर रियागत में महाराजा सरदार सिहजी राज्य करते थे। वर्तमान 'सरदार शहर' नगर उन्हीं के नाम पर बताया गया है। महाराजा सरदार सिहजी के महारावजी दीवान थे। महारावजी बड़े बुद्धिमान तथा जनप्रिय थे। एक बार महाराजा सरदार सिहजी तथा महारावजी के परस्पर कुछेक कारणों से मनमुटाव हो गया, जिससे रुष्ट होकर महाराजा ने महारावजी को दीवान पद से बर्खास्त कर दिया और उनकी जगह पर अमरचन्दजी सुराणा को दीवान पद पर नियुक्त कर लिया ।

संयोगवश उसी वर्ष बीकानेर रियासत के उत्तरीय अंचल में भीषण अकाल पड़ा, जिससे पीड़ित होकर जनता बीकानेर रियासत को छोड़कर अन्यत्र जाने लगी। खाने को अन्न नहीं, पीने को पानी नहीं, कारोबार सब चौपट हो गये। राज्य भर में तहलका-सा मच गया। बड़ी विकट समस्या उत्पन्न हो गई। महाराजा भी स्वयं बहुत चिन्तित थे। आखिर करें भी तो क्या ? समय पर कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। अन्त में महाराजा ने अपने नवनिर्वाचित दीवान को बुलाकर कहा- यदि जनता के बहिर्गमन का तांता इस प्रकार रहा तो वह दिन दूर नहीं कि जिस दिन सारा राज्य प्रजा से रिक्त हो जाएगा, तुम और में दो ही दो रहेंगे। अतः कुछ ऐसा समाधान निकालो कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ।

दीवान सुराणाजी ने कहा- महाराज! में भी इसी चिन्तन में हूं। जिस किसी प्रकार यदि हम जनता में विश्वास उत्पन्न कर दें तो शायद वे अन्यत्र न जाएँ। मेरे चिन्तन से तो यही बात जचती है कि कोई सेठ-साहुकार पांच-दस लाख रुपया दे तो मैं समूचे राज्य में राहत कार्य प्रारम्भ कर दू, जिससे लोगों को कम दाम पर आवश्यक सामग्री सुलम हो सके। तब भला जनता बहिर्गमन क्यों करेगी ? परन्तु समस्या एक ही है कि सारे राज्य में कोई भी ऐसा दिलदार व्यक्ति नहीं जो इतना धन मांगने पर दे दे। तब भला क्या किया जाए ?

महाराजा ने भृकुटि तानते हुए कहा- ऐसा कौन है, जो मेरे मांगने पर भी इन्कार करे। नया उसे अपना जीवन प्रिय नहीं है ?

दीवान सुराणाजी ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की- महाराज ! राजलदेसर के बैदों के पास प्रचुर धन है, परन्तु मुझे संशय है कि वे पाँच-दस लाख रुपया दे देंगे।

महाराजा ने कहा-यदि ऐसी बात है तो उन्हें मेरे राज्य में रहने का क्या अधिकार है? क्या ऐसी बिकट परिस्थिति को नहीं समकेंगे ? यदि सीधे रुपये दे देते हैं, तो ठीक, अन्यथा हाथों की दसों अँगुलियों पर रूई लपेट कर, तैल छिड़क कर , आग लगा दो। देखें, कैसे नहीं देते हैं।

महाराजा ने तत्काल आठ घुङसवारों को आदेश देते हुए कहा अभी तुम राजलदेसर जाओ और सेठ को पाँच लाख रुपया तत्काल देने का आदेश पत्र दिखाओ। यदि वे सहर्ष रुपया दे दें तो उन्हें मेरे पास ससम्मान ले आओ, अन्यथा बन्दी बनाकर ले आओ।

महाराजा का निर्देश पाते ही आठों घुड़सवार वहाँ से चले। चलते-चलते बीच में ही सूर्यास्त हो गया। अतः वे रात्रि बिताने के लिए एक गाँव में ठहर गये ।

इधर बर्खास्त दीवान महारावजी को जब यह खबर मिली तो उनका मन तिलमिला उठा, क्योंकि उनका बैद परिवार के प्रति अत्यधिक अनुराग था। उस प्रीति को आज तक उन्होंने निभाया था। उन्होंने तत्काल अपने आदमी को बुलाया और तीव्रगामिनी सांडनी देकर कहा- तुम मेरा रुक्का लेकर घुड़सवारों के पहुँचने से पहले-पहले सेठजी को दे आओ, रास्ते में कहीं भी मत रुकना ।

वायु वेग से सांडनी बीकानेर से चली और प्रातः होते-होते राजलदेसर पहुंच गई। उस समय चार बजे होंगे। सेठजी को जगाया और हरकारों ने महारावजी का पत्र उनके हाथ में थमा दिया। सेठजी ने पत्र पढ़ा, तत्काल स्थिति को भांप लिया। अपने दोनों भाइयों (जैसराज, मघराजजी को बुलाकर विचार-विमर्श कर राजलदेसर से प्रस्थान कर दिया। जाते-जाते अपनी वृद्धा माँ से कह दिया कि माँ ! हम जा रहे हैं। कोई पूछे तो बता देना कि परदेश गये हुए हैं। बच्चे अभी तक सो रहे थे। स्त्रियाँ घर के कार्य में व्यस्त थीं। प्रातःकाल होने से पूर्व ही सेठ लच्छीरामजी कुछ आदमियों को साथ लेकर रथ एवं ऊँठो पर सवार होकर वहाँ से चल पड़े। यह सब कार्य बड़ी शीघ्रता से किया गया ।

प्रातःकाल हुआ। लगभग दो घंटा दिन चढ़ा होगा कि इतने में ही वे आठों घुड़सवार वहाँ आ पहुँचे। सेठजी की हवेली पर आये, किन्तु अन्दर जाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। बाहर से पूछताछ की, परन्तु कुछ भी पता नहीं लगा। तीन दिन-रात वहीं पड़े रहे, अन्त में खाली हाथ बीकानेर लौट जाना पड़ा ।

इधर सेठ लच्छीरामजी राजलदेसर से लाडनूं पहुँचे और अपने सम्बन्धी फूफा हरकचन्दजी भूतोड़िया के यहाँ ठहरे। लाडनूं ठाकुर बादरसिंहजी को इस बात का पता लगा। वे बहुत प्रसन्न हुए। वे तो चाहते ही थे कि कोई वरिष्ठ महाजन परिवार उनके नगर में आकर बसे । सेठजी का ठाट-बाट सबके लिए कौतूहल का विषय था। ठाकुर बादर सिंहजी ने सेठजी को बुलाया और कहा- आप यहाँ प्रसन्नता से निवास करें। जहाँ चाहेंगे, जितनी चाहेंगे, उतने स्थान की व्यवस्था में कर दूंगा। ठाकुर साहब सेठजी के साथ-साथ दिन भर गाँव में घूमे । अनेकों स्थान दिखाए, परन्तु सेठजी को कोई भी स्थान पसन्द नहीं आया, क्योंकि वे गाँव की भीड़-भाड़ में बसना पसन्द नहीं करते थे। वे ऐसा स्थान चाहते थे जो विशाल और खुला हो। घूमते-घूमते दरें से उतर कर इस स्थान [ वर्तमान संतों का ठिकाना] पर आये जहाँ पुरोहितजी की बाड़ी थी। सेठजी को सब स्थानों में यह स्थान बहुत पसंद आया और उन्होंने यहीं पर बसने की इच्छा प्रकट की। ठाकुर साहब ने तत्काल पुरोहितजी को बुलाया । पुरोहितजी इस जगह को देने के लिए राजी हो गये। बदले में उन्हें दरवाजे के बाहर खाली जगह दे दी। आज भी वह स्थान पुरोहितजी की बाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। सेठजी ने पुरोहितजी को तीन सौ रुपये और दिये और स्थान को अपने कब्जे में ले लिया। ठाकुर साहब ने सेठ लच्छीरामजी से कहा कि यह हवेली जोधपुर के डिजायन की बनाई जाय । दोनों जोधपुर गये और हवेली का मनपसंद नक्शा बनवा लाये । शुभ मुहूत्त में नींव रखी गई और हवेली का निर्माण प्रारम्भ हो गया ।

दसो सिलावट (चेजारे) काम पर जुट गये। सामने के बड़े तिबारे की नींव खोदी जा रही थी। संयोगवश नींव खोदते-खोदते एक स्थान पर एक विशाल कब्र निकली। सेठजी भी उस समय पास में ही खड़े थे। उन्होंने कारीगर से कहा कि कब्र को मत छेड़ो, इसे ज्यों की त्यों छोड़कर उपर बीम (कड़ाऊ) दे दीवार (आसार) को उठा दो। यद्यपि सिलावट मुसलमान था, उसने कहा - सेठजी ! सारा लाडनूं कब्रों से भरा पड़ा है। कहाँ-कहाँ हम स्थान को छोड़ेंगे ? आप इसकी चिन्ता न करें। उसने सेठजी की बात को सुना-अनसुना कर दिया और मजदूरों से कह तत्काल कब्र पर रखे एक बड़े पत्थर को उठाया। उस समय लगा कि कब्र में से कोई कंकाल उठ रहा है। सिलावट घबराया । शरीर कांपने तगा । किन्तु उसने हिम्मत करके जैसे-तैसे कब्र को उखाड़ ही फेंका। नींव भर दी गई। वह घर आया। उसे कुछ ज्वर-सा महसूस हुआ और खाट पर सो गया। तापमान बढ़ रहा था। जी में घबराहट थी। उसने उसी कंकाल को रात्रि के मध्य अपने सामने खड़ा हुआ देखा। कंकाल ने कहा-अरे बदतमीज ! तूने यह क्या किया ? सेठजी ने तो कब्र को उखाड़ने को मना किया, किन्तु तूने मुसलमान होते हुए भी कब्र तक की परवाह नहीं की । मुसलमान के पर्दों को मुसलमान उघाड़े ? इसका परिणाम अब देख । इतना कहकर वह कंकाल विलीन हो गया । बस बेचारा सिलावट डुबक गया। घसका पड़ा तो ऐसा पड़ा कहते हैं वह फिर उठा ही नहीं। उसी खाट पर पड़ा-पड़ा सूख कर लकड़ी-सा हो गया। अन्ततः महीने भर में सदा के लिए सो गया ।