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अग्नि-परीक्षा, पुरी के शंकराचार्य की या आचार्य तुलसी को?

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श्री कर्पूरचन्द कुलिश संस्थापक - राजस्थान पत्रिका

प्रधान सम्पादक: राजस्थान पत्रिका, जयपुर

'अग्नि-परीक्षा' पुस्तक को लेकर पिछले दिनों चूरू में जो उत्पात हुआ, वह देखकर हैरान हुए बिना नहीं रह सकता। अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य तुलसी कृत 'अग्निपरीक्षा' को पढ़ने से तो ऐसी अनुभूति होती है कि राम और सीता की भक्ति करने वाले हर एक सनातनी को आचार्य तुलसी की भक्ति शुरू कर देनी चाहिये। महर्षि वाल्मीकि, कुम्हन, कृतिकास और तुलसीदास ने भी सीता को वह प्रतिष्ठा नहीं की है जो आचार्य तुलसी ने 'अग्नि-परीक्षा में की है, किन्तु राजनीति और लोक-लिप्सा की यह माया है कि इस पुस्तक को लेकर एक बार रायपुर में और इसी महीने चूरू में उपद्रव खडे कर दिये गये।

सनातनियों की आपत्ति

'अग्नि-परीक्षा' के विरुद्ध सनानियों की सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि उसमें सीता के लिये अपशब्दों का प्रयोग किया गया है। परन्तु वे लोग, जो प्रचार-लिप्सा की कृत्सित मनोवृत्ति से प्रेरित हैं, पुस्तक के संदभों को छोड़कर अपनी बात कहते है और अनभिज्ञ जनसाधारण को बरगला रहे हैं। यदि इन्हीं का तरीका इस्तेमाल किया जाय तो कह‌ना पड़ेगा कि रामचरितमानस में रावण ने जो कुछ राम के लिये कहा, परशुराम ने जो कुछ लक्ष्मण के लिये कहा, शूर्पणखा ने जो कुछ सीता के लिये कहा और मन्थरा ने जो कुछ दशरथ के लिये कहा, वह सब गाली-गलौच था और रामचरित मानस पर प्रतिबन्ध लगा देने ने लिये काफी है।

सनातनियों की दूसरी आपत्ति यह है कि 'अग्नि-परीक्षा' में रामचन्द्र जी के कई रानियाँ होने की बात कही गई है । जब कि उनकी राय में वे एक पत्नीव्रत थे। 'अग्नि-परीक्षा' के परिचय में ही कहा गया है कि वह विमल सूरि कृत प्राकृत भाषा के ग्रन्थ 'पउम चरिउ' पर आधारित है। यह एक जन ग्रन्थ है जिसमें राम को कई रानियों का जिक्र है। इस तरह का घटना-भेद सभी राम-काव्यों में मिलता है। हम राम और सीता के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह पुराणों और काव्यों के माध्यम से जानते हैं। राम के विषय में कोई ऐतिहासिक शिलालेख, दस्तावेज, भग्नाव शेष या अन्य कोई ठोस प्रमाण नहीं है। जैन पुराणों में राम का वह रूप नहीं है जो वैष्णव धर्म ग्रन्थों या काव्यों में है। केशवदास तो किसी धर्म के प्रर्वतक या प्रचारक भी नहीं थे। उन्होंने अपनी रामचन्द्रिका में एक स्थान पर तो राम की उपमा ठग से भी दी है। परन्तु वनवास में बल्कल पहने हुए राम लक्ष्मण केशवदास को करना में इसी तरह उभरे, इसे काव्य के समीक्षकों ने दोष भी माना है। परन्तु इस के प्रति साम्प्रदायिक घृणा फैलाने का प्रयास कमी नहीं किया।

'अग्नि-परीक्षा' को लेकर जहाँ जो कोई उत्पात हुआ है, वह निश्चय ही प्रचार-लिप्सा और साम्प्रदायिक वैमनस्य से प्रेरित है। यह सब कोई जानते हैं कि प्रचार पद्धति में आचार्य श्री तुलसी और पुरी के शंकराचार्य निरन्जन देव, दोनों ही एक दूसरे को होड़ में हैं। आचार्य तुलसी की विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी टेकनीक को आधुनिक रूप दे दिया है और पुरी के बाबा अभी लकीर के फकीर हैं, अतः उनको सफलता इसी में दिखाई देती है कि वे तुलसी को अपना निशाना बनायें ।

नया और पुराना संस्करण

'अग्नि-परीक्षा' को अभी-अभी पहली बार मैंने पढा। वह संशोधित संस्करण था, परन्तु जिन उद्धरणों को नये संस्करण में से निकाल दिया है वे मुझे सनातन धर्मियों की ओर से प्राप्त हो गये थे। उन्हें भी पदा। 'अग्नि-परीक्षा' की एक प्रति अणुव्रत आन्दोलन के सूत्रों से प्राप्त हुई है। दोनों को पढ जाने के बाद ऐसा कुछ नहीं लगा कि उस पर आपत्ति उठाई जाये। 'अग्नि-परीक्षा' का एक-मात्र लक्ष्य भगवती सीता की महिमा को अधिकाधिक बढ़ाकर प्रतिष्ठित करना रहा है, अतः सीता के विरुद्ध महाराजा राम के अन्तःपुर में छल-छदम् और षड्‌यन्त्रों का होना बताया गया है। राम और सीता जब वनवास भोग कर अयोध्या के राजमहल में रहने लगते हैं तो सीता के यश-गुण के कारण दूसरी रानियों को ईर्ष्या होने लगती है। वे बड़ी भोली बनकर सीता के पास आती हैं और लंका के अनुभव सुनना चाहती हैं। वे रावण का व्यक्तित्व भी जानना चाहती हैं, परन्तु सीता के यह कहने पर कि उन्होंने रावण को आँख से देखा ही नहीं, रानियों कहती हैं कि आते-जाते रावण के चरण हो दिखाई दिए होंगे। वे चरणों का रेखा-चित्र देखने को मचलती हैं और सीता उन्हें खुश करने के लिए रेखा-चित्र बना देती है। वह चित्र किसी तरह रानियाँ चुरा कर ले जाती हैं और अपनी ओर से उस पर रावण का पूरा चित्र तैयार कर महल के एक कमरे में प्रतिष्ठित कर देती हैं। उस चित्र को पूजा का प्रबन्ध भी कर दिया जाता है। एक बार राम ने महल में चित्र को देखकर जिज्ञासा की तो उनके कान में यह फूंक दिया गया कि वह सीता का इष्टदेव है। इसी प्रचार को रानियों ने चुगलखोर के जरिये अयोध्या के घर-घर पहुंचा दिया। एक रात को राम वेशभूषा बदल कर आयोध्या में घूमने निकले हैं और सीता की बुराई अपने कानों से सुनते हैं। इसी भ्रमण में धोबी वाली बात भी उनके कान में पड़ती है। वे जन मानस की इस भ्रांति से बड़े व्यथित होते हैं, परन्तु सीता के शील पर कदापि शंका नहीं करते । इसी पृष्ठभूमि में उन्होंने सीता को वनवास देने का फैसला किया। वन में सीता लव और अंकुश (कुश के बजाय अंकुश नाम दिया गया है) को जन्म देती हैं और बड़ा होने पर उनका विवाह भी कर देती हैं। वे एक राजा को भाई बना कर उसके संरक्षण में रहती हैं। एक बार नारदजी ने लव-अंकुश के सामने उनके पिता राम का सारा इतिवृत्त सुनाया तो दोनों राजकुमार अयोध्या पर चढ़ बैठे। वहाँ बाप-बेटा का मिलान होता है। सीता को फिर बुलाया जाता है और फिर 'अग्नि-परीक्षा' होती है। परीक्षा के समय अग्निकुण्ड लहरें लेता हुआ जल-सरोवर बन जाता है और दशों दिशाओं में उनकी स्तुति होती है। आचार्य तुलसी ने 'अग्नि-परीक्षा' के अन्त में सीता की स्तुति इन राब्दों में की है:

"तू कामधेनु, तू नन्दन वन, तू सुर-सरिता सुर वृक्ष सघन 'तुलसी' का तू ही जीवन-धन"

अयोध्या में सीता के विरुद्ध चुगलियां सुनने के बाद राम की जो मनोदशा थी उसका वर्णन निम्नलिखित शब्दों में किया गया है:

मोह मन में मैथिली का, इधर जन विद्रोह है। किसे छोड़ क्या करू, कर रहे उहा पोह हैं।

राम के अन्तःपुर में जो-जो कुचक्र चल रह था, उसकी एक झलकी दी गई है:

ज्यों-ज्यों बढ़ा राम के आगे, वैदेही का अति सम्मान। त्यों भड़को विद्रोह भावना, चला एक अभिनव अभियान ॥ हुई संगठित सभी रानियाँ, रुचित योजना के अनुसार।

'अग्नि-परीक्षा' को पढ़ने पर कहीं ऐसा नहीं लगता कि वह दुर्भावना से लिखी गई है। इस तरह का आभास मात्र भी नहीं मिलता। जहां तक कथानक और पात्र का सम्बन्ध है, उसके बारे में पहिले ही कहा जा चुका है कि वह हर एक रामायण में अलग-अलग है, परन्तु सभी रामायण का लक्ष्य राम और सीता की उच्चतम प्रतिष्ठा करने का है। इस कार्य में आचार्य तुलसी शायद दूसरों से दो कदम आगे सिद्ध होंगे। उन्होंने एक स्थान पर ससूची नारी जाति में विद्रोह की भावना भरने का बीड़ा उठाया है। सीता के वनवास पर एक स्थान पर वे कहते हैं:

नारी का अस्तित्व रहा, नर के हाथों में। नारी का व्यक्तित्व रहा नर के हाथों में।।

अपने बल पर नारी ! तुझे जागना होगा। कृत्रिम आवरणों को तुझे त्यागना होगा।

हालांकि आचार्य तुलसी का यह विद्रोह क्षणिक भावावेश मात्र है, परन्तु उसका कारण सीता के प्रति उनकी गहन सहानुभूति है, अतः उन पर यह आक्षेप लगाना निरी हिमाकत है कि उन्होंने हिन्दुओं के देवताओं का अपमान किया। मैं तो यह मानता हूँ कि यह आक्षेप ही दुर्भावनापूर्ण है और इसका रूप बामन-बनिये की लड़ाई के रूप में सामने आया है। चूरू में बैठे-ठाले पुरी शंकराचार्य आ धमके। उनके आने की वहाँ कोई जरूरत नहीं थी । उनकी जो गद्दी है, वह दर-दर भटकने के लिये नहीं है। आचार्य तुलसी तो अपने कार्यक्रम के अनुसार चातुर्मास करने आये हैं, किन्तु पुरी के बाबा वहाँ सिर्फ दंगे-फसाद करवाने के जा पहुंचे । यह राज्य प्रशासन का दिवालियापन था कि पुरी बाबा को चूरू में पहुँचने दिया गया। दो महीने पहिले से उनके चेले वहाँ खुराफात के बीज बो रहे थे। सरकार को यह सब मालूम था, लेकिन वह हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। क्यों न शंकराचार्य को नजरबंद करके घर दिया गया ? उनको पुरी की गद्दी इसलिए नहीं सौंपी गई कि दूसरे धर्माचार्यों के कार्य में विघ्न-बाधा पहुँचायें और दगे-फसाद करवायें । सभी धर्मों के कार्य-कलाप को निविघ्न चलने देने की जिम्मेवारी सरकार की है, जो वह नैतिक भीरुता और अकमर्ण्यता के कारण पूरी नहीं कर पाती। चूरू के जन-जीवन में यदि विक्षोभ पैदा हुआ तो इसके लिए शंकराचार्य से ज्यादा जिम्मेदारी राज्य सरकार की है।