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आचार्यश्री तुलसी की जीवन-झलक

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युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी इस युग के क्रांतिकारी आचार्यों में एक थे। जैन धर्म को जन धर्म के रूप में व्यापकता प्रदान करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे तेरापंथ धर्मसंघ के नौवे आचार्य थे।

जन्म

आचार्यश्री तुलसी आचार्य तुलसी समाधि स्थल नैतिकता का शक्तिपीठ

अणुव्रत प्रवर्तक, नैतिकता के महान् सन्देशवाहक आचार्य तुलसी के महाप्रयाण के बाद अन्तिम संस्कार की यह स्थली 'नैतिकता का शक्तिपीठ' के रूप में प्रतिष्ठित है।

आचार्य तुलसी का यह समाधि स्थल 'नैतिकता का शक्तिपीठ' आबार्य तुलसी द्वारा प्रदत नैतिक मूल्यों के विकास प्रचार-प्रसार एवं संस्कारों के जागरण के लिए निरन्तर तत्पर है। आचार्य तुलसी ने अपने साठ वर्षीय शासनकाल में नैतिकता का संबोध एवं जन-जीवन में चरित्र की चेतना को जागृत करने के लिए भारत के अनेकानेक प्रान्तों की पैदल यात्रा कर मानवीय मूल्यों की अलख जगाई। ऐसे महामानव की याद में खड़ा है 'नैतिकता का शक्तिपीठ'।

नैतिकता के महान् मसीहा संत तुलसी का यह समाधि स्थल 'नैतिकता का शक्तिपीठ'।

इसकी स्थापत्य कला अपनी वैशिष्ट्यता लिए हुए है। यह समाधि स्थल श्रद्धालुओं के लिए उपासना और ध्यान-साधना के उपयुक्त तपःस्थली है। आचार्य तुलसी का महाप्रयाण 29 जून, 1997 को हुआ। उसके बाद इस समाधि स्थल का लोकार्पण 1 सितम्बर, 2000 को हुआ।

समाधि स्थल परिसर में 30 हजार वर्गफीट निर्माण कार्य के अन्तर्गत तीन प्रशाल एवं नौ कमरे अवस्थित हैं। इनसे जुड़ी दर्शक दीर्घाएं भी विस्तृत हैं। समाधि स्थल से संलग्न एक विशाल मंच भी है. जिसके सम्मुख लगभग 50 हजार श्रद्धालु जन बैठकर समाधि स्थल को निहारते हुए किसी विशाल आयोजन में भाग ले सकते हैं।

आचार्य तुलसी समाधि स्थल परिसर के मध्य 3 हजार वर्ग फुट के गोल घेरे में मूल समाधि अवस्थित है। इसके शिखर पर चारों दिशाओं में लगे संगमरमर पर आचार्य तुलसी के विभिन्न मुद्राओं में रखा चित्र उनकी स्मृति को मुखर कर रहे हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि समाधि स्थल के अन्तःस्थल भूमि में एक अस्थि-कलश स्थापित है। यह अस्थि-कलश अष्ट-धातुओं एवं बहुमूल्य रत्नों की नक्कासी से युक्त सिद्धहस्त शिल्पियों द्वारा निर्मित किया गया है।

नैतिकता के शक्तिपीठ को बाहरी आकर्षण एवं सुरम्यता प्रदान करने के लिए परिसर की सीमा में एक लाख वर्ग फुट का उद्यान भी लगाया गया है। इस उद्यान के साथ कमरों के टेंपर को भी हरितिमा से आच्छादित किया गया है।

नैतिकता के शक्तिपीठ, आचार्य तुलसी समाधि स्थल पर स्थापत्य कला के बाहरी परिवेश को देखने एवं नैतिकता के महान् सम्बोधक को श्रद्धा से स्मरण एवं आत्मशान्ति को प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन बड़ी संख्या में विभिन्न धर्मों के श्रद्धालुओं का आगमन निरन्तर जारी रहता है। यहां आने वाले आगन्तुक यहां की रमणीयता के साथ आचार्य तुलसी द्वारा प्रदत्त सन्देश को मन और भावों से आत्मसात् करने की प्रेरणा लेकर प्रस्थान करते हैं।

आचार्य तुलसी शान्ति प्रतिष्ठान

हुआ। उनके पिता का नाम श्री झूमरमलजी खटेड एवं माता का नाम बदनांजी था। नौ भाई-बहिनों में उनका आठवां स्थान था। प्रारंभ से ही वे एक होनहार व्यक्तित्व के धनी थे।

दीक्षा

5 दिसम्बर, 1925 को लाडनूं में ग्यारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने पूज्य कालूराणी के करकमलों से दीक्षा ग्रहण की। ग्यारह वर्ष तक गुरु की पावन सन्निधि में रहकर मुनि तुलसी ने शिक्षा एवं साधना की दृष्टि से अपने व्यक्तित्व को बहुमुखी विकास दिया। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का तथा व्याकरण, कोश, साहित्य, दर्शन एवं जैनागमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। लगभग बीस हजार श्लोक परिमाण रचनाओं को कण्ठस्थ कर लेना उनकी प्रखर प्रतिभा का करिश्मा था।

व्यक्तित्व

संयम जीवन की निर्मल साधना, विवेक-सौष्ठव, आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन, बहुश्रुतता, सहनशीलता, गंभीरता, धीरता, अप्रमत्तता, अनुशासननिष्ठा आदि विविध विशेषताओं से प्रभावित होकर अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी ने 20 अगस्त, 1936 को गंगापुर में उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में मनोनीत किया।

आचार्यपद

आचार्यपद से पूर्व युवाचार्य पद पर आचार्यश्री तुलसी मात्र छः दिन रहे। बाईस वर्षीय मुनि तुलसी के युवा कन्धों पर विशाल धर्मसंघ का दायित्व आ गया। वे भाद्रव शुक्ला नवमी को आचार्यपद पर आसीन हुए। उस समय तेरापंथ संघ में 139 साधु व 333 साध्वियां थीं।

आचार्यपद का दायित्व संभालने के बाद आचार्यश्री तुलसी ने ग्यारह वर्ष का समय धर्मसंघ के आन्तरिक निर्माण में लगाया। निर्माण की इस श्रृंखला में उन्होंने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य किया साध्वी समाज में शिक्षा के प्रसार का। आज साध्वी समाज में शिक्षा की दृष्टि से बहुमुखी विकास हुआ है। इसके एकमात्र श्रेयोभागी थे-आचार्यश्री तुलसी।

अवदान

नैतिक क्रांति, मानसिक शांति और व्यक्तित्व निर्माण की पृष्ठभूमि पर आचार्यश्री तुलसी ने तीन अभियान चलाए अणुव्रत आन्दोलन, प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान। ये तीनों ही अभियान उस समय युग के लिए बहुत अपेक्षित थे। ये आज भी युगीन समस्या के समाधान के रूप में प्रतिष्ठित बने हुए हैं। अणुव्रत जाति, लिंग, रंग, सम्प्रदाय आदि के भेदों से ऊपर उठ कर मानव मात्र को चारित्रिक मूल्यों के संकट से उबारने का उपक्रम है। प्रेक्षाध्यान मानसिक एवं शारीरिक तनावों से ग्रसित मानवीय चेतना को शांति के पथ पर अग्रसर कर रहा है। जीवन विज्ञान के प्रयोग व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया है एवं शैक्षिक जगत की समस्याओं का समीचीन समाधान है।

गुरुदेवश्री तुलसी ने अणुव्रत के मंच से मानवीय शांति एवं स‌द्भावना के अनेक कार्यक्रम आयोजित किए। उनके उदार चिंतन में सम्पूर्ण विश्व के कल्याण की कामना थी। फलस्वरूप उनके सान्निध्य में कई अन्तरराष्ट्रीय शांति सम्मेलन आयोजित हुए। प्रथम अन्तरराष्ट्रीय शांति सम्मेलन जो 'शांति एवं अहिंसक उपक्रम पर प्रथम अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन' के नाम से विश्रुत हुआ, उस सम्मेलन में तीस देशों के लगभग 150 प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। उस सम्मेलन में जातीय एवं धार्मिक उन्माद, हिंसा तथा आणविक युद्ध के बढ़ते हुए खतरों से मानव जाति को मुक्त करवाने के लिए 'लाडनूं घोषणापत्र' इस नाम से एक सर्वसम्मति से शांति प्रारूप स्वीकृत हुआ जिसकी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना हुई। राजसमंद (मेवाड़) में भी अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन पर 'अहिंसा प्रशिक्षण पर राजसमंद घोषणा' की स्वीकृति महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस प्रकार आचार्यश्री तुलसी ने अपने बहुआयामी व्यक्तित्व से मानव जाति के कल्याण के लिए विभिन्न उपक्रम प्रस्तुत किए।

धर्मक्रांतिधर

धर्मक्रांति और साम्प्रदायिक स‌द्भाव आचार्यश्री के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों में एक था। उनके अभिमत में धर्म का सबसे पवित्र स्थान मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि धर्मस्थान नहीं बल्कि मनुष्य का अपना अन्तःकरण है। वे रूढ़ धर्म के नहीं, जीवंत धर्म के परिपोषक थे। उन्होंने कहा- 'मुझे ऐसा धार्मिक नहीं चाहिए जो धर्मस्थान में बैठकर भक्त प्रह्लाद और मीरा की भक्ति प्रदर्शित करे और घर, दुकान एवं ऑफिस में बैठ कर राक्षसी वृत्तियां प्रकट करे। धर्म करने का अधिकार जितना एक महाजन को है, उतना ही एक हरिजन को है।' उनके इन क्रांतिकारी विचारों ने बौद्धिक मानस में धार्मिकता का संचार किया और नास्तिक चेतना में भी आस्तिकता की लौ जलायी।

क्रांतिकारी विचारक

साम्प्रदायिक स‌द्भाव की दिशा में वे सतत प्रयत्नशील रहे। यद्यपि वे एक सम्प्रदाय के आचार्य थे पर साम्प्रदायिकता उनके विचारों पर कभी हावी नहीं हुई। आचार्यश्री अपने परिचय में कहते थे- 'मैं सबसे पहले मानव हूं, उसके बाद धार्मिक हूं, उसके बाद जैन हूं और उसके बाद तेरापंथ का आचार्य हूं।' आचार्यश्री तुलसी के इन्हीं क्रांतिकारी विचारों का परिणाम कहा जा सकता है कि जो तेरापंथ एक संधीय सीमा में आबद्ध था, वह न केवल राष्ट्रीय बल्कि अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर सका है। तेरापंथ के सिद्धांतों को युग की भाषा में रख कर उसे जन-जन की आस्था का केन्द्र बनाना आचार्यश्री के युग की महान् उपलब्धि रही।

दूरदर्शी अनुशास्ता

आचार्यश्री तुलसी एक क्रांतिकारी युगपुरुष थे। क्रांति के साथ प्रायः विरोध का सह-अस्तित्व देखा जाता है। आचार्यश्री तुलसी के क्रांतिकारी कदमों का विरोध भी कम नहीं हुआ। उनके जीवन में विरोध और अभिनन्दन दोनों की पराकाष्ठा रही। एक तरफ उन्हें विश्वव्यापी सम्मान मिला तो विरोध भी कम नहीं मिला। पर वे सम्मान और विरोध दोनों में सदाबहार फूल की भांतिऐ एकरूप रहे।

नारी-जागरण, संस्कार- निर्माण, रूढ़ि-उन्मूलन एवं सामाजिक बुराइयों के बहिष्कार हेतु वे सतत प्रयत्नशील रहे। नये और प्राचीन मूल्यों में समन्वय स्थापित कर उन्होंने नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच एक सेतु का काम किया।

महान् पदयात्री

वे महान् पदयात्री थे। लगभग साठ हजार कि. मी. पदयात्रा कर पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण भारत के अधिकांश भू-भाग में उन्होंने नैतिकता की लौ प्रज्वलित की। उनके युग में तेरापंथ का क्षेत्र विस्तार बहुत व्यापक स्तर पर हुआ। भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में तथा भारत के बाहर भूटान, नेपाल में भी साधु-साध्वियों ने जाकर अणुव्रत के संदेश को पहुंचाया।

धर्मप्राण

पारमार्थिक शिक्षण संस्था, जैन विश्वभारती एवं जैन विश्वभारती संस्थान की आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का विकास आचार्यश्री तुलसी युग की विशिष्ट उपलब्धि है। ये तीनों संस्थान आज भी विद्वानों, शिक्षाविदों, दार्शनिकों एवं योगसाधकों की जिज्ञासा के केन्द्र बने हुए हैं। समण श्रेणी की स्थापना आचार्यश्री तुलसी का एक ऐतिहासिक, दूरदर्शितापूर्ण और साहस भरा कदम था। इस श्रेणी के माध्यम से उन्होंने न केवल मध्यम प्रतिपदा के रूप में आत्मसंयम की दिशाएं उद्घाटित कीं, अपितु देश-विदेशों में जैन धर्म को उजागर किया।

आगम-पुरुष

आचार्यश्री तुलसी के जीवन का हर कोण उपलब्धियों से भरा था। उनके कार्यस्रोत विविध दिशागामी थे। वे एक कुशल अनुशास्ता, समाज-सुधारक, नारी-उद्धारक, धर्मक्रांति के सूत्रधार, मानवता के मसीहा, जैन दर्शन के मर्मज्ञ एवं महान् विचारक, चिन्तक व साहित्यकार थे। उनके साहित्य की भाषा हिन्दी, राजस्थानी और संस्कृत रही। गद्य और पद्य की विधाओं में उनके द्वारा लिखित पचासों साहित्यिक कृतियों से न केवल साहित्य ही समृद्ध हुआ अपितु दर्शन, ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र कृतकृत्य हुआ। आचार्यश्री तुलसी एक महान् आगम-पुरुष थे। उनके वाचना-प्रमुखत्व में उनके सफल उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने सम्पादन कौशल से जैन वाड्मय को आधुनिक भाषा में सटिप्पणी प्रस्तुति देने का गुरुतर कार्य किया। अनेक आगम प्रकाशित होकर विद्वानों के हाथों में पहुंचे। न केवल भारतीय विद्वानों अपितु पाश्चात्य विद्वानों ने इस आगम कार्य को जैन दर्शन एवं जैन शासन की ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा माना। यह महत्त्वपूर्ण कार्य आज भी गतिशील है।

विकास प्रवर

आचार्यश्री तुलसी ने तेरापंथ धर्मसंघ का सर्वतोमुखी विकास करने के साथ-साथ मानवता की सेवा और मानवीय मूल्यों की प्रस्थापना को अपना एक प्रमुख कार्य माना। उनकी मानवीय सेवाओं के मूल्यांकन स्वरूप युगप्रधान के रूप में उनका अभिनन्दन, यूनेस्को के डायरेक्टर लूथरइवेन्स, अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिज्ञ वेकन आदि विदेशी व्यक्तियों द्वारा उनकी नीति का समर्थन, जर्मन विद्वान् होमियोराउ द्वारा विदेश आने का निमंत्रण, राष्ट्रीय एकता परिषद् में सदस्य के रूप में मनोनयन, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर द्वारा भारत ज्योति अलंकरण, केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ वाराणसी द्वारा वाक्पति (डीलिट्) मानद अलंकरण, राष्ट्रीय एकता के विकास में उल्लेखनीय भूमिका के लिए सन् 1992 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन द्वारा हकीम खां सूर सम्मान आदि-आदि तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास के ऐसे स्वर्णिम पृष्ठ हैं जो काल के भाल पर सदा अंकित रहेंगे।

मानवता के मसीहा

आचार्यश्री तुलसी के जीवन का एक दुर्लभ दस्तावेज है- 18 फरवरी, 1994 सुजानगढ़ में होने वाले मर्यादा महोत्सव का विराट् आयोजन। उस दिन उन्होंने अपने ऊर्जस्वल महिमामंडित आचार्यपद का विसर्जन कर अपनी सक्रिय और समर्थ उपस्थिति में युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्यपद पर प्रतिष्ठित कर दिया। नाना उपाधियों, अलंकरणों और सम्बोधनों से घिरा वह विराट् व्यक्तित्व सचमुच निरुपाधि बनकर मानवता की सेवा का अटल प्रण लिए उन जननेताओं और धर्मनेताओं के सामने चुनौती बन गया, जो सत्ता, पद और प्रतिष्ठा के पीछे पागल बन रहे थे।

महाप्रज्ञ के शब्दों में

आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के शब्दों में तुलसी और तेरापंथ पर्यायवाची नाम हैं। आचार्यश्री तुलसी के शासन काल को तेरापंथ का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। उनकी शासना में इस संघ ने आकाशमापी ऊंचाइयों प्राप्त की। उनका सम्पूर्ण जीवन धर्मसंघ/जैन शासन एवं सकल मानव जाति के उत्थान में समर्पित रहा। उनके जीवन की हर सांस स्वार्थ चेतना से मुक्त परार्थ एवं परमार्थ चेतना की सुरभि विकिरित करती रही। मानव जाति का इतिहास तुलसी के अवदानों का चिर ऋणी रहेगा।

अध्यात्म का सूर्य

गंगाशहर की धरा पर वह अध्यात्म का सूरज प्रकाश प्रसारित कर रहा था कि अचानक 23 जून, 1997 को काल के सघन मेघ ने उस सूर्य को आच्छन्न कर दिया। सम्पूर्ण मेदिनी उनके विरह में व्याकुल बन गयी। उनकी अंतिम यात्रा में अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करने के लिए देश-विदेश से लाखों की संख्या में लोग उपस्थित हुए और अपने हृदयहार प्रिय गुरु को अंतिम विदा दी।

आचार्य तुलसी समाधि स्थल नैतिकता का शक्तिपीठ

अणुव्रत प्रवर्तक, नैतिकता के महान् सन्देशवाहक आचार्य तुलसी के महाप्रयाण के बाद अन्तिम संस्कार की यह स्थली 'नैतिकता का शक्तिपीठ' के रूप में प्रतिष्ठित है।

आचार्य तुलसी का यह समाधि स्थल 'नैतिकता का शक्तिपीठ' आबार्य तुलसी द्वारा प्रदत नैतिक मूल्यों के विकास प्रचार-प्रसार एवं संस्कारों के जागरण के लिए निरन्तर तत्पर है। आचार्य तुलसी ने अपने साठ वर्षीय शासनकाल में नैतिकता का संबोध एवं जन-जीवन में चरित्र की चेतना को जागृत करने के लिए भारत के अनेकानेक प्रान्तों की पैदल यात्रा कर मानवीय मूल्यों की अलख जगाई। ऐसे महामानव की याद में खड़ा है 'नैतिकता का शक्तिपीठ'।

नैतिकता के महान् मसीहा संत तुलसी का यह समाधि स्थल 'नैतिकता का शक्तिपीठ'।

इसकी स्थापत्य कला अपनी वैशिष्ट्यता लिए हुए है। यह समाधि स्थल श्रद्धालुओं के लिए उपासना और ध्यान-साधना के उपयुक्त तपःस्थली है। आचार्य तुलसी का महाप्रयाण 29 जून, 1997 को हुआ। उसके बाद इस समाधि स्थल का लोकार्पण 1 सितम्बर, 2000 को हुआ।

समाधि स्थल परिसर में 30 हजार वर्गफीट निर्माण कार्य के अन्तर्गत तीन प्रशाल एवं नौ कमरे अवस्थित हैं। इनसे जुड़ी दर्शक दीर्घाएं भी विस्तृत हैं। समाधि स्थल से संलग्न एक विशाल मंच भी है. जिसके सम्मुख लगभग 50 हजार श्रद्धालु जन बैठकर समाधि स्थल को निहारते हुए किसी विशाल आयोजन में भाग ले सकते हैं।

आचार्य तुलसी समाधि स्थल परिसर के मध्य 3 हजार वर्ग फुट के गोल घेरे में मूल समाधि अवस्थित है। इसके शिखर पर चारों दिशाओं में लगे संगमरमर पर आचार्य तुलसी के विभिन्न मुद्राओं में रखा चित्र उनकी स्मृति को मुखर कर रहे हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि समाधि स्थल के अन्तःस्थल भूमि में एक अस्थि-कलश स्थापित है। यह अस्थि-कलश अष्ट-धातुओं एवं बहुमूल्य रत्नों की नक्कासी से युक्त सिद्धहस्त शिल्पियों द्वारा निर्मित किया गया है।

नैतिकता के शक्तिपीठ को बाहरी आकर्षण एवं सुरम्यता प्रदान करने के लिए परिसर की सीमा में एक लाख वर्ग फुट का उद्यान भी लगाया गया है। इस उद्यान के साथ कमरों के टेंपर को भी हरितिमा से आच्छादित किया गया है।

नैतिकता के शक्तिपीठ, आचार्य तुलसी समाधि स्थल पर स्थापत्य कला के बाहरी परिवेश को देखने एवं नैतिकता के महान् सम्बोधक को श्रद्धा से स्मरण एवं आत्मशान्ति को प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन बड़ी संख्या में विभिन्न धर्मों के श्रद्धालुओं का आगमन निरन्तर जारी रहता है। यहां आने वाले आगन्तुक यहां की रमणीयता के साथ आचार्य तुलसी द्वारा प्रदत्त सन्देश को मन और भावों से आत्मसात् करने की प्रेरणा लेकर प्रस्थान करते हैं।

साभार- आचार्य तुलसी शान्ति प्रतिष्ठान नोखा रोड, गंगाशहर (बीकानेर) 334401